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लाज / हंसराज

ओहि दिन क्रोधावेशमे
जखन हम अपन बापक कपरा फोड़ि देल
तँ भरि गामक हगामा लोक जमा भेल।
आ, बिना किछु बुझने
बिना किछु सुनने
सभ हमरा कहलक, ‘दुर छि; दुर छि;।’

आ लाठी पटकि जखन हम
घाड़ सोझ क’ कह’ लगलहुँ
तँ सभ क्यो बुझलनि
सभ क्यो सुनलनि
आ, सभ हमर बापकें कहलनि, ‘दुर छिः दुर छिः।’

किन्तु जखन हमर बाप
माथा हाथ द’ साश्रु नयन कहलनि तँ सब किछु बूझि क’
सभटा सूनि क’
सभ क्यो अपन मुँह लाजें लाल क’
घर जाइत गेलाह।