केकरऽ कहाँ यहाँ के सूनै
ई अनसैलऽ बात
देखऽ सच कानै-कपसै छै
झूठें मारै लात।
तेबर चढ़ै छै सुनत्है फुसफुस
कहतैं करै आघात
भला कहऽ कहिया मौजऽ के
के बाँटतै जजवात।
गुमसुम कतेॅ ई गुमसैलऽ
दिन रहतै की रात
गरजी-भूकी धुंध मिटावऽ
ई बदली बरसात।
अड्डा-गड्डा टुटै क्यारी
के बंधन सब घात
बिना उछलनें की मन ‘मथुरा’
मिटलै कौरब तात?