Last modified on 13 अगस्त 2009, at 10:01

लामकाँ है भाषा / नंदकिशोर आचार्य

कवि का कोई घर नहीं होता
तलाश ही होती है बस
वह रहता दिखता तो है भाषा में वैसे
पर परिन्दा आकाश में जैसे।

लामकाँ है भाषा
जिसमें नहीं बन सकता मकाँ कवि का
-किसी का भी-
उड़ते ही रहना है उसे
ठहरा कि लो, यह गिरा

कवि इसीलिए घर नहीं
घर के बिम्ब रचता है
जिनमें बसी रहती है
उसकी तमन्ना की बास।