संंक्षिप्त परिचय
17 दिसम्बर 1920 को जगदलपुर में जन्मे और लम्बी अस्वस्थता के बाद 93 वर्ष की आयु में 14 अगस्त 2013 की संध्या 07.00 बजे प्रयाण कर गये लाला जगदलपुरी जी ने साहित्य के माध्यम से बस्तर की अप्रतिम सेवा की। हिन्दी के साथ-साथ हल्बी, भतरी एवं छत्तीसगढ़ी में भी कविता, गीत, मुक्तक, नाटक, एकांकी, निबंध आदि साहित्य की अनेकानेक विधाओं पर 1936 से सृजन आरम्भ करने वाले लालाजी ने अपने अन्तिम समय से कुछ ही दिनों पहले अपनी अस्वस्थता के कारण लेखन-कर्म छोड़ दिया था। उनकी पुस्तक "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" ने उन्हें पूरे देश में चर्चित कर दिया था। यह पुस्तक "मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी", भोपाल से प्रकाशित हुई थी और इसकी इतनी माँग थी कि प्रकाशक को इसके कई-कई संस्करण प्रकाशित करने पड़े। आज यह पुस्तक उपलब्ध नहीं है जबकि माँग जस-की-तस बनी हुई है। इसी माँग को देखते हुए शीघ्र ही इसका नया संस्करण राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित होने जा रहा है। उनकी अन्तिम पुस्तक "बस्तर की लोक कथाएँ" (हरिहर वैष्णव के साथ सम्पादित) 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई। यह पुस्तक भी पूरे देश में चर्चित हुई और आज भी हो रही है। इसके भी अब तक दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उन्हें अन्यानेक सम्मानों के साथ ही छत्तीसगढ़ राज्य के सर्वोच्च राजकीय साहित्य सम्मान "पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य/आंचलिक साहित्य अलंकरण" से 2005 में विभूषित किया गया था।
विस्तृत परिचय
रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव के समय में दुर्ग क्षेत्र से चार परिवार विस्थापित हो कर बस्तर आये थे। इन परिवारों के मुखिया थे - लोकनाथ, बाला प्रसाद, मूरत सिंह और दुर्गा प्रसाद। इन्ही में से एक परिवार जिसके मुखिया श्री लोकनाथ बैदार थे, वे शासन की कृषि आय-व्यय का हिसाब रखने का कार्य करने लगे। उनके ही पोते के रूप में श्री लाला जगदलपुरी का जन्म 17 दिसम्बर 1920 को जगदलपुर में हुआ था। लाला जी के पिता का नाम श्री रामलाल श्रीवास्तव तथा माता का नाम श्रीमती जीराबाई था। लाला जी तब बहुत छोटे थे जब पिता का साया उनके सिर से उठ गया तथा माँ के उपर ही दो छोटे भाईयों व एक बहन के पालन-पोषण का दायित्व आ गया। लाला जी के बचपन की तलाश करने पर जानकारी मिली कि जगदलपुर में बालाजी के मंदिर के निकट बालातरई जलाशय में एक बार लाला जी डूबने लगे थे; यह हमारा सौभाग्य कि बहुत पानी पी चुकने के बाद भी वे बचा लिये गये।
लाला जी का लेखन कर्म 1936 में लगभग सोलह वर्ष की आयु से प्रारम्भ हो गया था। लाला जी मूल रूप से कवि थे। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं – मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश (1983);पड़ाव (1992); हमसफर (1986) आँचलिक कवितायें (2005); ज़िन्दगी के लिये जूझती ग़ज़लें तथा गीत धन्वा (2011)। लाला जगदलपुरी के लोक कथा संग्रह हैं – हल्बी लोक कथाएँ (1972); बस्तर की लोक कथाएँ (1989); वन कुमार और अन्य लोक कथाएँ (1990); बस्तर की मौखिक कथाएँ (1991)। उन्होंने अनुवाद पर भी कार्य किया है तथा प्रमुख प्रकाशित अनुवाद हैं – हल्बी पंचतंत्र (1971); प्रेमचन्द चो बारा कहानी (1984); बुआ चो चीठीमन (1988); रामकथा (1991) आदि। लाला जी ने बस्तर के इतिहास तथा संस्कृति को भी पुस्तकबद्ध किया है जिनमें प्रमुख हैं – बस्तर: इतिहास एवं संस्कृति (1994); बस्तर: लोक कला साहित्य प्रसंग (2003) तथा बस्तर की लोकोक्तियाँ (2008)। लाला जी की रचनाओं पर दो खण्डों में समग्र (2014) यश पब्लिकेशंस से प्रकाशित किया गया है। यह उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी का बहुत सा कार्य अभी भी अप्रकाशित है तथा दुर्भाग्यवश कई महत्वपूर्ण कार्य चोरी कर लिये गये। यह 1971 की बात है जब लोक-कथाओं की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि को अपने अध्ययन कक्ष में ही एक स्टूल पर रख कर लाला जी किसी कार्य से बाहर गये थे कि एक गाय ने यह सारा अद्भुत लेखन चर लिया था। जो खो गया अफसोस उससे अधिक यह है कि उनका जो उपलब्ध है वह भी हमारी लापरवाही से कहीं खो न जाये।
लाला जगदलपुरी के कार्यों व प्रकाशनों की फेरहिस्त यहीं समाप्त नहीं होती अपितु उनकी रचनायें कई सामूहिक संकलनों में भी उपस्थित हैं जिसमें समवांय, पूरी रंगत के साथ, लहरें, इन्द्रावती, हिन्दी का बालगीत साहित्य, सुराज, छत्तीसगढ़ी काव्य संकलन, गुलदस्ता, स्वरसंगम, मध्यप्रदेश की लोककथायें आदि प्रमुख हैं। लाला जी की रचनायें देश की अनेकों प्रमुख पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में भी स्थान बनाती रही हैं जिनमें नवनीत, कादम्बरी, श्री वेंकटेश्वर समाचार, देशबन्धु, दण्डकारण्य,युगधर्म, स्वदेश, नई-दुनिया, राजस्थान पत्रिका, अमृत संदेश, बाल सखा, बालभारती, पान्चजन्य, रंग,ठिठोली, आदि सम्मिलित हैं। लाला जगदलपुरी ने क्षेत्रीय जनजातियों की बोलियों एवं उसके व्याकरण पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। लाला जगदलपुरी को कई सम्मान भी मिले जिनमें मध्यप्रदेश लेखक संघ प्रदत्त "अक्षर आदित्य सम्मान" तथा छत्तीसगढ़ शासन प्रदत्त "पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान’ प्रमुख है। लाला जी को अनेको अन्य संस्थाओं ने भी सम्मानित किया है जिसमें बख्शी सृजन पीठ, भिलाई; बाल कल्याण संस्थान, कानपुर; पड़ाव प्रकाशन, भोपाल आदि सम्मिलित है। यहाँ 1987 की जगदलपुर सीरासार में घटित उस अविस्मरणीय घटना को उल्लेखित करना महत्वपूर्ण होगा जब गुलशेर अहमद खाँ शानी को को सम्मानित किया जा रहा था। शानी जी स्वयं हार ले कर लाला जी के पास आ पहुँचे और उनके गले में डाल दिया; यह एक शिष्य का गुरु को दिया गया वह सम्मान था जिसका कोई मूल्य नहीं; जिसकी कोई उपमा भी नहीं हो सकती।
केवल इतनी ही व्याख्या से लाला जी का व्यक्तित्व विश्लेषित नहीं हो जाता। वे नाटककार एवं रंगकर्मी भी थे। वर्ष 1939 में जगदलपुर में गठित बाल समाज नाम की नाट्य संस्था का नाम बदल कर वर्ष 1940 में सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख दिया गया। इस संस्था द्वारा मंचित लाला जी के प्रमुख नाटक थे – पागल तथा अपनी लाज। लाला जी ने इस संस्था द्वारा मंचित विभिन्न नाटकों में अभिनय भी किया था। 1949 में सीरासार चौक में सार्वजनिक गणेशोत्सव के तहत लाला जगदलपुरी द्वारा रचित तथा अभिनित नाटक "अपनी लाज" विशेष चर्चित रहा था। लाला जी बस्तर अंचल के प्रारंभिक पत्रकारों में भी रहे हैं। वर्ष 1948 – 1950 तल लाला जी ने दुर्ग से पं. केदारनाथ झा चन्द्र के हिन्दी साप्ताहित "ज़िन्दगी" के लिये बस्तर संवाददाता के रूप में भी कार्य किया है। उन्होंने हिन्दी पाक्षिक अंगारा का प्रकाशन 1950 में आरंभ किया जिसका अंतिम अंक 1972 में आया था। अंगारा में कभी गुलशेर अहमद खां शानी की कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं। लाला जगदलपुरी 1951 में अर्धसाप्ताहिक पत्र "राष्ट्रबंधु" के बस्तर संवाददाता भी रहे। समय समय पर वे इलाहाद से प्रकाशित "लीडर"; कलकत्ता से प्रकाशित "दैनिक विश्वमित्र"; रायपुर से प्रकाशित "युगधर्म" के बस्तर संवादवाता रहे हैं। लालाजी ने वर्ष 1984 में देवनागरी लिपि में निकलने वाली सम्पूर्ण हलबी पत्रिका "बस्तरिया" का सम्पादन प्रारंभ किया जो इस अंचल में अपनी तरह का अनूठा और पहली बार किया गया प्रयोग था। लाला जी न केवल स्थानीय रचनाकारों व आदिम समाज की लोक चेतना को इस पत्रिका में स्थान देते थे अपितु केदारनाथ अग्रवाल, अरुणकमल, गोरख पाण्डेय और निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकारों की रचनाओं का हलबी में अनुवाद भी प्रकाशित किय जाता था। ऐसा अभिनव प्रयोग एक मिसाल है; तथा यह जनजातीय समाज और मुख्यधारा के बीच संवाद की एक कड़ी था जिसमें संवेदनाओं के आदान प्रदान की गुंजाईश भी थी और संघर्षरत रहने की प्रेरणा भी अंतर्निहित थी।
लाला जगदलपुरी से जुड़े हर व्यक्ति के अपने अपने संस्मरण है तथा सभी अविस्मरणीय व प्रेरणास्पद। लाला जगदलपुरी के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने शासकीय सहायता का प्रावधान किया था जिसे बाद में आजीवन दिये जाने की घोषणा भी की गयी थी। आश्चर्य है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह शासन ने 1998 में यह सहायता बिना किसी पूर्व सूचना के तब बंद करवा दी; जिस दौरान उन्हें इसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी। लाला जी ने न तो इस सहायता की याचना की थी न ही इसे बंद किये जाने के बाद किसी तरह का पत्र व्यवहार किया। यह घटना केवल इतना बताती है कि राजनीति अपने साहित्यकारों के प्रति किस तरह असहिष्णु हो सकती है। लाला जी की सादगी को याद करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेष सुलभ एक घटना का बहुधा जिक्र करते हैं। उन दिनों मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जगदलपुर आये थे तथा अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए उन्होंने लाला जगदलपुरी से मिलना निश्चित किया। मुख्यमंत्री की गाड़ियों का काफिला डोकरीघाट पारा के लिये मुड़ गया। लाला जी घर में टीन के डब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। लाला जी इसी तरह की सादगी की प्रतिमूर्ति थे।
कार्य करने की धुन में वे अविवाहित ही रहे थे। जगदलपुर की पहचान डोकरी निवास पारा का कवि निवास अब लाला जगदलपुरी के भाई व उनके बच्चों की तरक्की के साथ ही एक बड़े पक्के मकान में बदल गया है तथापि लाला जी घर के साथ ही लगे एक कक्ष में अत्यधिक सादगी से रह रहे थे। इसी कक्ष में उन्होंने अंतिम स्वांस ली।