लाशों की प्रदर्शनी देखी कुंभ नगर में
आज दूसरा दिन था । देखा, उमड़ रहा था
झुंड दर्शकों का । चर्चा थी डगर डगर में,
मानव ने यह असहनीय आघात सहा था ।
मुर्दे पड़े हुए थे, मुँह नाक से बहा था
काला और पनीला रुधिर । गंध का लहरा
हलका हलका उठता था । पुत्र ने गहा था
हाथ पिता का, वेग आँसुओं का था गहरा
'बाबू, तुम्हें हो गया क्या, आशा मेम ठहरा
मैं डेरे पर रहा कि तुम जब आ जाओगे
तब हम गाँव चलेंगे ।' सारा मेला थहरा,
कहा पुलिस ने, 'अब रोने से क्या पाओगे ।'
करुणा का सागर था वहीं कुतूहल भी था,
किरणों का उत्ताप जहाँ था मृगजल भी था ।