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लिखना भला विदेश में / प्रमोद कुमार

मैं रोज़ कई-कई चिट्ठियाँ लिखता हूँ

किसी को दूर जाते देख
लिपट कर उसे रोकने में
रास्तों में लिखता हूँ,

ट्रैफ़िक-पुलिस मुझे घेरती है
कि चलते हुए
मैं पैरों से क्या लिखता हूँ,
कि, इस ढंग से मेरा चलना
चलने के नियमों के विरूद्ध है और
अर्थहीन भी,
         ऐसी बाधाओं के रोके
मैं कोई अर्थ नहीं भरता

        चिट्ठियाँ पूरी करते-करते
मैं स्वंय भी एक चिट्ठी बन जाता हूँ
लेकिन, लिफ़ाफ़े पर
नाम-पते लिखने में अटक जाता हूँ

मैं पढ़नेवालों के सिरहाने कैसे पहुँचूँ
जब दुकान और घर
एक ही रास्ते बन रहे हैं
भले ही लोगों ने जगह न बदली हो
उनके पते बदल गए हैं,

मेरे सारे लिखे
बिना पते के चलते हैं
कि कभी लोग जब अपने देश को
खोजने निकलेंगे
मेरी चिट्ठियों का भी उत्खनन करेंगे

इन्हीं चिट्ठियों पर
लोग अपने नाम-पते लिख
                        बार-बार पढ़ेंगे,
वे यह भी पढ़ेंगे कि
किसी मरे समय में
आदमी क्या लिखकर ज़िन्दा रहा होगा ।