मैं घोर संकट में हूँ।
बंजुबान बैठी है आत्मा।
"एक भी दिन नहीं जाता बिना लिखे - हाँकता है दोस्त।
पर अपनी तो हालत यह -
न वक्त मिलता है,
न कलम चलती है।
दूर, वीरान पड़े हैं मेरे खेत।
बंद पड़े हैं कारखाने सभी।
और मन की बेकारी
ले रही है डरावनी जम्हाई।
और मेरा आलोचक-अभियोक्ता
लिखेगा अपने लेखों में
कि संकटों से एकदम मुक्त व्यवस्था में
चिल्लाते हुए अकेला
मैं झेल रहा हूँ संकट।
ओ मेरे मित्र, मेरे अनबिके मित्र!
सूट अच्छा है पर नाप का नहीं।
सब कुछ है यों जाहिर भीतर-बाहर
पर गीत है कि गाते नहीं बनना।
मेरी तो अधोगति हो रही है प्यार में।
यारी है अब तो सिर्फ शराबखाने से।
तुम ठीक हो, तुम्हारी नहीं
यह मेरी हो रही है अधोगति।
मिसरी की डलियों की तरह सख़्त थी तुकें
और हॉकी के खिलाड़ी की तरह आक्रामक।
पर मैं भूल चुका हूँ तुकबंदी करना
बन नहीं पा रही है वे किसी भी तरह।
बहुत दूर से पराई चिड़िया
सुबकती है अपने क्षणिक दुख में।
मिलकर गा सकते हैं सारस
पर हंस को गाना नहीं आता हैं झुण्ड में।
किसलिए तुम खुले में
रो रहे हो पूरे ब्लादीमीर के सामने?
मुझे स्वीकार नहीं इस तरह की चीख-पुकार।
मेरा तो पतन हो रहा हे तेजी से।
एक दिन में मेरे देश में
सात कविता पुस्तकें छपती हैं।
और मैं भाग रहा हूँ
शहरी दोस्त के पागल कुत्ते-सा
ठंडे जंगलों और
गोधूली के मौन क्षणों की ओर
जहाँ बहार का हो रहा है पतन
ग्रीष्म के रहस्यमय अंतराल में।
पूरा विश्वास है मुझे कि मेरे समानधर्मा -
हमारे संघ के दो हजार सात सौ सत्रह कवि -
लिखते रहेंगे मेरे बिना भी
उन्हें नहीं मालूम -
क्या होती है अधोगति।