दादाजी हैं सत्तर पार
पर लिखने का चढ़ा बुखार।
क़लम कांपती धुंधला दिखता।
फिर भी हाथ लपककर लिखता।
अब तक कभी न मानी हार।
सोच-सोच कर लिखते जाते।
कभी सोच में गोते खाते।
सोच क़लम के जुड़ते तार।
कौओं कोयल पर लिख डाला।
कंप्यूटर में भी मुंह मारा।
लेखन उनका जीवन सार।
रात देर तक जागे हैं जब।
दादी कहती सो जाओ अब।
नहीं सोये, होंगे बीमार