लिखी हुई संदिग्ध भूमिका
जब चेहरे की पुस्तक पर
भीतर के पृष्ठों, अध्यायों को
पढ़कर भी क्या होगा ?
चमकीला आवरण सुचिक्कन
और बहुत आकर्षक भी
खिंचा घने केशों के नीचे
इन्द्रधनुष-सा मोहक भी
देखे,मगर अदेखा कर दे
नज़र झुका कर चल दे जो
ऐसे अपने-अनजाने के सम्मुख
बढ़कर भी क्या होगा ?
अबरी गौंद शिकायत की है
मुस्कानों की जिल्द बँधी
होंठों पर उफ़नी रहती है
परिवादों से भरी नदी
अगर पता चल जाय, कथा का
उपसंहार शुरू में ही
तो फिर शब्दों की लम्बी सीढ़ी
चढ़कर भी क्या होगा ?