छह सौ साल बाद
अचानक जगह-जगह
सेमीनारों में मौसम कबीर हो रहा है
मेरी आँखों के आगे और स्याह होता जा रहा है अँधेरा
बुनकर बस्तियों में बेकार पड़ा है कबीर का करघा
और भारत के बाजारों में,दुकानों में
सज गए हैं विदेशी कपड़ों के थान
ठीक मस्जिद के बगल में है
मेरा किराये का मकान
लेकिन मेरे कान नहीं सुन पाते अजान
मंदिर की इमारत मैं दूर से ही देख लेती हूँ
मुझमें नहीं बची है
बहुरिया की बेचैनी
अपने राम को पाने की
इस मौसमी बारिश की टप-टप में
मुझे याद आ रही है
छह सौ साल पुरानी कबीर की वह लुकाठी
वह न होती तो शायद कबीर न होते कबीर
जैसे सभ्यता की शुरुआत हुई होगी
आग के अविष्कार से
कुछ वैसे ही मेरे लिए कविता
शुरू होती है कबीर की लुकाठी से
वे जो दंगा-फ़साद करते हैं
अपने पड़ोसियों का घर जलाते हैं
अक्सर रख के ढेर में तब्दील कर देते हैं
वर्णहीन बस्तियाँ
उन्हें कैसे मालूम हो सकता है
कबीर की लुकाठी का मतलब
दूसरो का नहीं
सिर्फ़ अपना घर जलाने के लिए
किया था कबीर ने
जिस लुकाठी का अविष्कार