लेकर सीधा नारा
कौन पुकारा
अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?
पलकें डूबी ही-सी थीं --
पर अभी नहीं;
कोई सुनता-सा था मुझे
कहीं;
फिर किसने यह, सातों सागर के पार
एकाकीपन से ही, मानो-हार,
एकाकी उठ मुझे पुकारा
कई बार ?
मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल
जीवन;
कण-समूह में हूँ मैं केवल
एक कण ।
--कौन सहारा !
मेरा कौन सहारा !
( १९४१ में लिखित )