अरे दोनों हाथों दिन-रात, कहानी को लिखने वाले;
कभी सोचा भी कितने पृष्ठ अभी तक तुमने लिख डाले।
रही है कितनी स्याही शेष? रहा कितना कागज बाकी;
कलम में कितनी दम है और कहाँ पर इति है गाथा की।
सजाने को शीर्षक, अधिकांश समय का तो उपयोग किया;
किन्तु क्या उसके ही अनुरूप विषय को समुचित रूप दिया।
हुईं जो पहली चूकें उन्हें बचा पाये फिर या कि नहीं;
पड़े जो काले धब्बे उन्हें धुला पाये फिर या कि नहीं।
बिना समझे बूझे तुम और कहाँ तक लिखते जाओगे;
क्रियाओं में क्या पूर्ण-विराम, शाम तक नहीं लगाओगे।
बहुत लिखने में अधिक न सार-लेखनी को अवरुद्ध करो;
लिखा जो कुछ भी अब तक, उसे पढ़ो पढ़ करके शुद्ध करो।
कथानक की लम्बाई में न कहानी का गौरव मानो।
फूल की पंखड़ियों में बसी हुई खुशबू को पहचानो॥