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लेनिन / नारायण सुर्वे

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अब तक मैंने तुम पर लिखा नहीं
यह अफ़सोस नहीं;
एक बेहद ज़िम्मेदारी को महसूस करता हूँ
जब मैं सीने पर हाथ रखता हूँ, लेनिन
बीच आधी रात और
एक घुम्म-सी आवाज़ शहर में गूँजती है
ऊपर के पोल को नीचे खींचकर
खड़खड़ करती ट्राम खड़ी हो जाती है

तब चिपकाते रहते हैं पोस्टर; या
बत्ती के नीचे बैठकर बहस करते हैं हम ।
बड़े सुख के ये दिन
बिल्कुल आँच के पास की गरमाहट जैसे
असली ज़िन्दगी जीने का
अहसास दिलानेवाले सुनहले दिन ।

बड़ा लुभावना यह शहर
करोड़ों वोल्ट्स का एक तारा
ठंडा पड़ जाता है एक दिन
ख़ामोश हो जाता है, चक्का जाम होता है,
लोग सड़कों पर उतर आते हैं

जलती रहती हैं बत्तियाँ दिन-दहाड़े
बाढ़ की तरह सड़क पर लोगों का झुंड
हद हो जाती है चौराहे-चौराहे पर
हथौड़ेवाले रणबाँकुरे बन जाते हैं ।
जीतते हैं; चिनगारियाँ जलाते हैं शेर के बच्चे
ऐसे वक़्त किसी को भी यहाँ नतमस्तक होना चाहिए ।

तब वे हमें ले गए
'साले ! लेनिनवाले लगते हैं ।' कहा उन्होंने,
कान गर्म हो गए, लेकिन अच्छा भी लगा
दानवों ने अब ही सही, हमें ठीक से पहचान तो लिया ।

'ये अब जाग गए हैं
सूरत ही बदल डालेंगे धरती की'
                तुमने लिखा ।
अब तक हम शब्द को पूरा नहीं कर पाए हैं
अब तक तुम पर
कुछ लिखने का साहस मैं नहीं जुटा पाया हूँ ।


मूल मराठी से निशिकांत ठकार द्वारा अनूदित