Last modified on 10 जुलाई 2011, at 12:01

ले उड़े कोई जल्दी / शहंशाह आलम

बेतरह खांस रही है शताब्दी
कई-कई भयों कई-कई दुखों में
सीमेन्ट की बोरियां गिर रही हैं
धड़ाधड़-धड़ाधड़ काल-अकाल के बीच
ऋतुएं सब उलट-पुलट हो गई हैं
छायाएं ग़ायब हो रही हैं

बार-बार विशेषज्ञ डाक्टरों के यहां
जाना पड़ रहा है मनुष्यों को पशुओं को
चारपाई ख़ाली पड़ी है नए आगंतुक की प्रतीक्षा में

कितनी ख़राब कितनी बदसूरत गुज़र रही है शताब्दी
कुछ नहीं के बीच गेहूं के बिना

ले उड़े कोई जल्दी बहुत जल्दी
इस बेतरह खांस रही शताब्दी को

ऐसे ले उड़े कोई कि आने वाली शताब्दियां
संपूर्ण रूपों में स्वस्थ हों
चिड़ियों शिशुओं से भरी हों
पेड़ से भरी हों अनाज से भरी हों
बचा रहे जीवन जीवन की तरह
तक़लीफ़ और दुख न हों
आने वाली शताब्दियों में।