लोकतंत्र अगर यही है
तो हमारे लिए नहीं है
वैसे यह तमाशा है
या परिवर्तन
अथवा इस प्रदर्शन का भी
कोई एक दर्शन है
सवाल यह अकारण नहीं है क्योंकि
हिजड़ों के देश में
ताली बजाना अपना शौक नहीं
बल्कि परिस्थितियों का एक नर्तन है
और इसी उधेड़बुन में
जीती हुई जनता धीरे-धीरे
स्वाद के नाम पर
अब नीम से कहीं ज्यादा
तिक्त हो चुकी है
और स्वयं से तंग आकर
मृत्यु की वेदना से पहले ही
मुक्त हो चुकी है...।