चढ़ती रातों में कुछ पढ़ते हुए
तमतमा जाता चेहरा
हाथ की नसें तन जातीं
पाँवों में कुछ ऐंठता
कभी आँखों में नमी महसूस होती
गालों पर आँसू की लकीर भी दिखती
लेकिन पाग़ल नहीं था मैं कि अकेला बैठा गुस्साता या रोता
सामान्य मनुष्य ही था
सामान्य मनुष्य जैसी ही थीं ये हरक़तें भी
आजकल सामान्य होना पाग़ल होना है
और पाग़लों की तरह दहाड़ना-चीख़ना-हुँकारना
सामान्यों में रहबरी के सर्वोच्च मुकाम हैं
संयोग मत जानिएगा
पर जून 2014 में मुझे अपने साइको-सोमैटिक पुनर्क्षीण के लिए
दिल्ली के अधपग़ले डाक्टर के पास जाना है