ये पंछी नहीं
लोकगायक
आए हैं
कुछ प्राकृत
कुछ अप्रभंश
गीत लाए हैं
चिड़ियों की
जिह्वा पर
बिरहड़ा
तोतों के
कण्ठ में
भंगड़ा
कौव्वों के टप्पे
ये आदिवासी
तानों में
कानन पर छाए हैं
यह चकवी की
धुन
किन्नरी के
सुर-सी
रामचिरैया रे
बोलों में
चौपाई
उभरी
ये आल्हा
और ऊदल
के उत्सर्ग
मैना ने
भारी-मन
गाए हैं
सुन
कोयला का ढोलरू
नवसंवत्सर
लाया
पपीहे ने
बारहों-मास
सावनघन
गाया
ये मोनाल के
सोहाग राग
शतवर्धावन
लाए हैं
ये चकोर-चकोरी की
लोक-ऋचाएं
ये मयूर-मयूरी की
मेघ-अर्चनाएं
ये सारसों के
अरिल्ल सृष्टि की
बांसुरी बन भाए हैं
ये इतने–सारे
राग रंग गीत कण्ठ
ये ढेर-ढेर
मन्त्र-गीत
प्रीत-छन्द
ये सब
इन लोकगायक
कवियों के
जाए हैं