नम उदास आँखो में लोग झिलमिलाते हैं।
साथ-साथ रह कर भी रोज़ याद आते हैं।
हमनें कुछ किताबें तो पढ़-पढ़ा तो लीं लेकिन,
सिर्फ ढाई अक्षर ही हमसे मुँह चिढ़ते हैं।
तज़ुरबों पे जीवन के कौन नाज़ करता है,
लोग तो सफ़ेदी को स्याह कर छुपाते हैं।
दर्द को कलेज़े में ढालना ज़रूरी था,
आह को दबाने में शक्ल ही मिटाते हैं।
हम भी जानते हैं यह, कद्र क्या है शायर की,
फिर भी कुछ तो है,'वाते' हाथ आज़माते हैं।