मैं किसी जयप्रकाश से न मिला,
किसी विनोबा के आश्रम में
वसन्त बनकर न खिला
किसी भी गांधी की
लाठी न हुआ,
मुझे किसी पारस ने न छुआ
मैं लोहा हूँ लोहा
हथौड़े का
कल का
दात्री का
हल का
(समय की पतझड़ में, १९८२)
मैं किसी जयप्रकाश से न मिला,
किसी विनोबा के आश्रम में
वसन्त बनकर न खिला
किसी भी गांधी की
लाठी न हुआ,
मुझे किसी पारस ने न छुआ
मैं लोहा हूँ लोहा
हथौड़े का
कल का
दात्री का
हल का
(समय की पतझड़ में, १९८२)