लौटना कभी
आसान नहीं होता
सच ही तो है
लौटना कभी
आसान नहीं होता।
उस पल तो
और भी ज़्यादा
जब आप रेस में
बहुत तेज़ी से दौड़ रहें हों
और टारगेट
टारगेट बस छू ही लिया हो।
हम सब लगातार
किसी न किसी रेस में शरीक है।
एक रेस हर समय
हम अपने भीतर जीते है।
ऐसी कई अनगिनत रेस में
जीत जाने के लिए।
बिना सही-ग़लत की पहचान के।
कोई भी लौट कर
नहीं आना चाहता
बिना रेस जीते।
जीतने का क्रम भी तो
जारी रहता हैं अनवरत।
हम सब भी दौड़ रहे हैं
कभी न खत्म होने वाली
इस रेस में
बिना ये सोचे-समझे कि
सूरज भी लौट आता है समय पर।
चाहतों की कभी
कोई सीमा नहीं
ज़रूरतें तो होती ही है
हमेशा से असीमित।
हाँ ये सही है
लौटना कभी
आसान नहीं होता
लेकिन जब तक
की जाती है तैयारी लौटने की
तब तक कुछ बचता नहीं शेष।
खुद से किया वादा
लौट आऊंगा
भी नहीं लौट पाता।
दौड़ता रहता निरवरत / लगातार
सतत / निर्निमेश / अनवरत।
गौतम बुद्ध भी
नहीं लौट पाए कभी।
अभिमन्यु भी
लौटना नहीं जानता था
हम सब भी लौटना नहीं जानते।
पर जो लौटना जानते हैं
वही जीना भी जानते हैं।
पर लौटना कभी आसान नहीं होता।
काश हम सब लौट पाते!
काश हम सब लौट पाते
जड़ों से शिराओं की ओर विस्तारित
अद्वितीय, अलौकिक शक्तियों के
तेज से प्रकाशवान होते।