आज भी -
रोटी और कविता की
कृत्रिम रिक्तता में खड़े
कुछ अतृप्त-अनुभवहीन मानव
करते हैं बात
जन-आंदोलन की
कभी प्रगतिवाद , कभी जनवाद , कभी समाजवाद तो
कभी संस्कृतिवाद से जोड़कर....!
जिनके पास -
न सभ्यता-असभ्यता का बोध है
और न स्वाभिमान का
कोमल एहसास
जिनके इर्द-गिर्द व्याप्त है
क्रूर अथवा अनैतिक मानवीय
सवेदनाओं का संसार
और पारम्परिक मान्यताओं की त्रासदी ।
प्यारी लगती है उन्हें -
केवल अपनी ही गंदी बस्ती
और बरसात में बजबजाती झोपड़ी
फैले होते आसपास
कल्पनाओं के मकड़जाले
और अधैर्य की विशाल चादर ।
यकीनन -
अपनी टुच्ची दलीलें
और पूर्वाग्रह के घटाटोप से
जूझते हुए सभी
छुप जाएँगे एक दिन
धुंध के सुरमई आँचल में
फिर चुपके से निकल जाएँगे
किसी बियाबान की ओर
जीवन के -
सुन्दर मुहावरे की खोज में ।
किसी न किसी दिन
लौटेंगी उनकी भी संवेदनाएँ
रचने के लिए कोई कविता
और करने के लिए विजय-नाद
वर्षों से चली आ रही
अभिव्यक्ति की लड़ाई का .....।।