Last modified on 22 अप्रैल 2017, at 14:24

लौट आओ / कुमार कृष्ण

कितनी ज़रूरी है घर के अन्दर-बाहर धूप की उपस्थिति
नहीं जान सकता यह काँचीपुरम का कृष्णन
इसे जान सकता है कुमार कृष्ण
कुमार कृष्ण अच्छी तरह जानता है
बर्फ का बीजगणित, पट्टू का इतिहास
पुआल का ताप, देवदारु के जीवनानुभव की गरमाहट
खेत-खलिहान, पगडण्डियों का व्याकरण
बैलों के कन्धों की सूजन
जितना कठिन है पहाड़ पर चढ़ना
उससे भी मुश्किल है

पहाड़ को कविता में पूरी तरह छुपा लेना
कुमार कृष्ण तुम पहाड़ और कविता दोनों एक साथ हो
घराट<ref>पनचक्की</ref> का पसीना, कठफोड़े की भूख

लाल किले से कविता पढ़ने का तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं।
लाल किले की प्राचीर से शब्द उड़ाने वाले नहीं गाते
चरवाहों के गीत

उनकी कविता में उड़ते हैं टेड ह्यूज के कौवे
उग्रवादी ध्वनियों की जगह थरथराता है

नीत्शे और कामू का मृत्यु-भय
आखिर क्यों भूल जाते हैं वे
लूणा का दर्द, पूस की रात, मीर की, ग़ालिब की तकलीफ़
राम विलास शर्मा की जगह याद आता है उनको सार्त्र
काशी के घाट पर गिन्सबर्ग का नौकाविहार।

नहीं गाये उन्होंने
महाबलीपुरम के मछुआरों के गीत
नहीं गायी पटना के प्लेटफार्म पर
पत्तल चाटती औरत की ग़ज़ल।

दादर की खोली में
पूरी तरह बचाकर रखी है अभी भी
प्रवासी मजदूर ने रिश्तों की गरमाहट
इसीलिए लौट आता है वह साल में एक बार गाँव
जैसे लौट आते हैं अपनी-अपनी नौकाओं में मछुआरे
फटे हुए तम्बुओं में लौट आते हैं बाजीगर
लौट आता है रात उतरने पर
फ्लाईओवर के नीचे हिन्दुस्तान
लाल किले के मंच पर चढ़े हुए कवि
तुम भी लौट आओ चाँदनी चौक में
आई.टी.ओ.पुल नहीं है तुम्हारी जगह
सोचो, ठीक तरह से सोचो-
तुमको कहाँ होना चाहिए इस वक़्त।

शब्दार्थ
<references/>