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लौट आये लकड़हारे / कुमार रवींद्र

हाथ में पकड़े कुल्हाड़े
जंगलों से लौट आये
                        लकड़हारे
  
गाँव की पगडंडियों पर
मोड़ कितने
कौन जाने
हर किनारे पर नदी के
हैं खड़े क़ातिल सयाने
 
प्यास के सूरज करें क्या
                         कुएँ खारे
 
कटे पंखों से कहें क्या
भूख की हैं कई नस्लें
रोज़ आदमखोर चेहरे
देखकर
हैरान फसलें
 
छाँव बैठी है अकेली
        डरे बरगद के सहारे