लौट आ ओ मूर्खता! घर लौट आ!!
और कब तक लगाए
फिरता रहूँ मैं मुखोटा?
अक़्लबंदी से बहुत,
हम उम्र केवल जी लिए।
ग़ैर के अक्सर उधेड़े,
स्वतः के बखिये सिए।
आइने चमकाए, झोंकी धूल
चातुरी, चालाकियाँ की जमा।
लौट आ ओ मूर्खता! घर लौट आ!!
हम नहीं हम रह गए,
यूँ सभी के जैसे हुए।
पागलों से कटाकर
अब झाँकते फिरते कुएँ।
गै़र से बदतर हुआ है
ज़माना अपना सगा।
लौट आ ओ मूर्खता! घर लौट आ!!
जिं़दगी होती कहाँ है-
समझदारी, सलीक़ों में?
आदमी को आदमी ये
बदल देते फरीक़ों में।
जिं़दगी से कर रहे
ख़ारिज हमें ये रहनुमाँ।
लौट आ ओ मूर्खता! घर लौट आ!!