तप से कुर्बाणी दे जो आजादी मिली
रह न पायी उसे लौट जाना पड़ा।
राष्ट्र का सबसे अनमोल वह दिन हुआ,
मुक्ति आलोक पर्व वह अमर बन गया।
दिन था पन्द्रह अगस्त जिसने लाया तुझे
रख तो पाया नहीं लौट जाना पड़ा।
मानव मन की पावन अभीप्सा बनी,
इतिहास-पुत्री मनोहर बड़ी।
बनके जननी जगत की है स्वाधीनते!
रुक न पायी तुम्हें लौट जाना पड़ा।
था इकलौता प्यारा सुमन जो बना,
शोभता गोद में माँ की जो बड़ा।
था दमकता सुहागिन के जो माँग पर,
लेके स्वागत में भी तुमको जाना पड़ा।
आरती वृद्ध ने थी उतारी तेरी,
अपने अन्धेरे घर का दीपक तुझे।
आँख तुमको किसी की नहीं लग सके,
थी व्यवस्था सभी फिर भी जाना पड़ा।
इस धरा पर तुम्हारा हुआ आगमन,
लाखों नर-नारियों ने उठा ध्वज लिया।
कोटि कंठों ने जय-गान तेरा किया,
पाँव रुक न सके तुमको जाना पड़ा।
था खुशियों का सागर जो उमड़ा यहाँ,
लग रही थी धरा स्वर्ग सी तब यहाँ।
‘घर उन्हीं के रहूंगी’ विहंस कहके भी,
रह न पायी तुम्हें लौट जाना पड़ा।
किसानों के गेहूँ भरे खेत में,
श्रमिकों के श्रम से बने खेत में।
भूमि समतल बनी मानव-रक्त से,
रहने की थी तमन्ना पर जाना पड़ा।
हो न पायी मनुज औ मनुज बीज में,
प्रान्त के बीच भाषा दीवालें नहीं।
न्याय कायम जहां सत्य रक्षित रहे,
चाह थी जा रहूं फिर भी जाना पड़ा।
प्रेम करता जहां राज जाके वहां,
श्रम पाता उचित मूल्य अपना जहाँ।
जा रहूंगी वहीं कहके भी तो कहीं,
रह न पायी तुम्हें लौट जाना पड़ा।
कहके इतना चली छोड़ सिंहासन तुम,
रूप देवी मय वाणी थी अमृत मयी।
छोड़ तीर्थों में अवगाहन करने हमें,
रुक न पायी तुम्हें पग बढ़ाना पड़ा।
दूसरे दिन ही देखा एक मजदूर को,
गोली खाके सड़क पर तड़पता था वह।
पूछा प्यारी वह स्वाधीनता है कहाँ,
रक्षिका तेरी उसको क्या जाना पड़ा?
”था उसे ही पुकारा“ - कहा उसने बस,
गोली मारी उसे आततायी वहां।
‘एक सफेद पोश’ ने अपहरण कर तेरा,
भागा, कह दम उसे तोड़ देना पड़ा।
आँख गीली हुई क्रोध आया हमें,
माँ आजादी को खोजने हम चल पड़े,
वर्ष बीते बहुत पर नहीं तुम मिली,
हाथ मल-मलकर बस रह जाना पड़ा।
दिन पन्द्रह अगस्त आता रहता सदा,
गान तेरा, तुम्हारी जय सुनते हैं हम।
खा मिठाई, निरख आतिशबाजी तेरी,
दर्शन पाये बिना रह है जाना पड़ा।
लिख रहा था कल कविता सम्मान हित,
आके दरवाजे को खटखटायी थी तुम।
देख चिन्ता में डूबी फटे वस्त्र थे,
झर्रियाँ लख कपोलों पर रोना पड़ा।
रत्न माला न गंगा की थी कंठ पर,
न कठि में दिखी करघनी विन्ध्या की।
कृष्णा, कावेरी, हीरक बलय से रहित,
लख कलाई को बस रो ही देना पड़ा।
था न पायल चरण में वह रत्नाकर का,
पाँव से रक्त बहता था तेरा वहाँ।
हाथ ऐंठे तुम्हारा जो देखा वहाँ,
देख कर अश्रु को ही बहाना पड़ा।
रूप लावण्य च्युत शक्ति हीना बनी,
वृद्धा स्वाधीनता लख रही थी जो तुम।
दे सहारा तुम्हें फर्श पर ला वहाँ,
देख कर कष्ट ही भोगना था पड़ा।
जान-पहचान कर फिर से जब मैं तुम्हें,
भीतर आने कहा तुम न आयी वहाँ।
”अब न आऊँगी मैं“ जा रही हूँ अभी,
सुन आँसू को ही था गिराना पड़ा।
”जिस कहानी को कोई न सुनता उसे,
वाणी दे या न दे पर है सुनता कवि।“
कह यही निज कहानी शुरु तुमने की,
सुन-सुनके जिसे धैर्य खोना पड़ा।
कुछ साम्भ्रान्त से उजली पोशाक में,
घेर कर तुम से यों जब वे कहने लगे।
जेल काटी, किया अनशन, खाये कोड़े,
त्याग बलिदान भी हमको करना पड़ा।
थी विदेशी ही ‘कार’ जिस पर बैठी थी तुम,
सबसे अच्छे भवन में थी ठहरी भी तुम।
सन्तरी कर रहा था जो पहरा वहाँ,
भागने का इरादा भी तजना पड़ा।
भव्य स्वागत तुम्हारे थे चलते रहे,
दौर भी थे शराबों के चलते रहे।
रात-दिन दावतें भी थी चलती रही,
कार्यक्रम नित्य नूतन बनाना पड़ा।
खुल गये कारखाने, लिये कर्ज भी,
बिक गये हार तेरे, मुकुट माथ के।
करघनी, नूपूरें, चूड़ियाँ बिक गई,
साड़ी-गोटा किनारी को बिकना पड़ा।
संग विदेशी के रह, रंग उनके ही रंग,
कान्ति चेहरे की भी नष्ट होती रही।
नृत्य करते तेरे पाँव छिलते रहे,
हाथ इतने मिले ऐंठ जाना पड़ा।
थे पलंग भी बड़े, मखमली गद्दे भी,
नींद फिर भी तुम्हें आ रही थी नहीं।
देश के बलि-पंथी जो वफादार थे,
जाके ‘फुट-पाथ’ पर उनको सोना पड़ा।
याद उनकी सदा तुमको तड़पाती थी,
थी निकलने की तुमको इजाजत नहीं।
चीखती जितनी तुम ठीक दूने ही तो,
पहरों को कड़ा उनकोकरना पड़ा।
मुल्क जब एक ने साड़ी-सौदा किया,
जसन रात भर जब मनाया गया।
थे बेहोस छोटे-बड़े सब वहाँ,
रास्ता तब तुम्हें खोज लेना पड़ा।
देश का जो बहुत ही बड़ा सन्त था,
खोजने निज शरण तुम वहीं थी गयी।
थी आध्यात्मिकता नहीं चेतना,
था अपावन बड़ा देखना यह पड़ा।
चेतना के जो सप्तम सोपान पर,
बास कर देख पाते थे ईश्वर को भी।
लोग कहते थे ईश्वर के अवतार हैं,
कुछ न पायी वहाँ रोना-धोना पड़ा।
थे घिरे लोग से सोनेकी चौकी पर,
करना उनको नमन था निरर्थक नहीं।
कीमती चीज धनीयों को दी जा रही,
था गरीबों के हिस्से भभुत ही पड़ा।
था नहीं सन्त वह था बड़ा बाजीगर,
सोच शिक्षा-सदन पग तुम्हारे चले।
ज्ञान का तीर्थ आलोक-मन्दिर जिसे,
मानती थी उसे छोड़ आना पड़ा।
साम्प्रदायिकता के जातिवादों के भी।
दरबाजे लगे थे बड़े ही कड़े।
मार्ग संकीर्ण जाने का था जो वहाँ,
देख ऐसा तुम्हें लौट जाना पड़ा।
छात्रों शिक्षकों पर था शासन कड़ा,
अपना ईमान खो जो बने थे बड़े।
थी संस्था नहीं, कामधेनु थी वह,
माल पड़ता था देना उसे नित बड़ा।
शुल्क छात्रों के वेतन गुरु के सभी,
से थे जेबी सदा से वे भरते रहे।
दुर्दशा थी तपोवन की जो हो रही,
देख वंशम्पायन को लजाना पड़ा।
भागकर जब चली मन्दिरों के तरफ,
थे पुजारी वहाँ देवता थे नहीं।
मस्जिदों में अजानें थी ईमान ना,
गुरुद्वारों में जिन्दें ही लखना पड़ा।
चर्च में क्रॉस थे पर मसीहा नहीं,
पुण्य के थे नहीं तीर्थ पापों के थे।
पा सकी जब शरण तू वहाँ भी नहीं,
पाँव उलटे तुम्हें लौट जाना पड़ा।
हर जगह जब निराशा ही मिलती रही,
पास आई कवि के ही यह जानकर।
”सोते जब हैं सभी, है कवि जागता“
पर यहाँ भी तुम्हें मुँह की खानी पड़ी।
थी खड़ी कक्ष के सुन जो बाहर खड़ी,
थी कवि गुनगुनाहट भी अच्छी नहीं।
थी ध्वनित हो प्रशंसा प्रशासन की ही,
सोचकर मौन ही रह तो जाना पड़ा।
भूमि भवभूति, गौतम, निराला की यह,
गांधी तुलसी सदृश सन्त कवियों की यह।
पर यहाँ भी विपन्ना अकेली दुखी,
बन सदा के लिए कूच करना पड़ा।
एक आश्वासन तुम देके चलती बनी,
जब कवि की कलम होगी सक्षम तभी।
लौट आयेगी सच न्याय धर्मों को लख,
कह इतना तुम्हें लौट जाना पड़ा।
आँख बच्चों की औ उनकी मुस्कान में,
बास करने यहाँ से चली तुम गयी।
मुक्त सामाजिक, त्रुटि, गन्दगी दोष से,
लख वहीं भाग्य को आजमाना पड़ा।
-समर्था,
24.9.83 से 26.9.83