एक युद्ध-सा
छिड़ गया है
हाथ काटने वाले हाथ
और हाथ थामने वाले हाथों के बीच
निकल पड़े हैं
निगहबान की आंख तराशने
कुछ चील, कौवे और गिद्ध
और कुछ बागवां
हो गए हैं उनसे यु्द्धरत
पड़ रहे हैं
आंसू, पसीने और लहू के छींटे
तमाशबीन बुतों के जिस्म पर
इतिहास के अंतराल में
घायल हंस को बचाने
उठे थे सिद्धार्थ के हाथ
कहा था-
मारने वाले से बड़ा होता है
बचाने वाले का हाथ
आज भी
भेड़ियों की खाल
बिक रही है बज़ार में
और लूट रहे हैं दरिंदे
बोलियां लगाकर
सरेआम
सत्य का परचम लिए
युद्धरत आदमी
कभी मरता नहीं
शुद्ध आग की लौ
कभी बुझती नहीं
झंझावातों के बीच भी
अंधकार से भरे आशियां
चिरागां होते रहेंगे
लौ जलती रहेगी
शुद्ध आग की लौ बुझती नहीं
ये ‘भगीरथ’ के यज्ञ की आग है
ये कभी बुझेगी नहीं।