वक़्त तो बदलता है, सच नहीं बदलता है।
यह मगर सदा उसके साथ-साथ चलता है।
कोई गुण नहीं गाता, भूलकर कभी उसका,
काम अच्छे करने को जो नहीं निकलता है।
सावनी जो मौसम है, जेठ से भी बदतर है,
बारिशें नहीं देता, आग ही उगलता है।
गर्म होके पानी भी डेगची में चूल्हे पर,
आँच हो अगर धीमी, वह नहीं उबलता है।
जिसकी हो हवा रक्षक, क्या बुझे बुझाने से,
आँधियों की जद में भी, वह चिराग़ जलता है।
आदमी नहीं अच्छा जान लो यही ‘प्रभात’,
हर घड़ी जो दुनिया में, अपना रंग बदलता है।