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वक्त / बुद्धिनाथ मिश्र

वक्त कभी माटी का, वक्त कभी सोने का

पर न किसी हालत में यह अपना होने का ।


मिट्टी से बने महल, मिट्टी में मिले महल

खो गई खंडहरों में वैभव की चहल-पहल

बाजबहादुर राजा, रानी वह रूपमती

दोनों को अंक में समेट सो रही धरती


रटते हैं तोते इतिहास की छड़ी से डर

लेकिन यह सबक कभी याद नहीं होने का ।


सागर के तट बनते दम्भ के घरौंदे ये

ज्वार के थपेड़ों से टूट बिखर जाएंगे

टूटेगा नहीं मगर ये सिलसिला विचारों का

लहरों के गीत समय-शंख गुनगुनाएंगे


चलने पर संग चला सिर पर नभ का चंदा

थमने पर ठिठका है पाँव मिरगछौने का ।


बांध लिया शब्दों को मुट्ठी में दुनिया को

द्वार ही न मिला मुक्ति का जिसको मांगे से

सोने की ढाल और रत्न-जड़ी तलवारें

हारती रहीं कुम्हार के कर के धागे से


सीखा यों हमने फ़न सावन की बदली में

सावन के रंग और नूर को पिरोने का ।


बाजबहादुर-रूपमती=मांडू के राजा बाजबहादुर और रानी रूपमती की प्रसिद्ध प्रेमकथा की बात की गई है । कुम्हार के कर का धागा=कुम्हार चाक पर तैयार कच्चे बरतन को धागे से काटकर उतारता है ।


(रचनाकाल :27.10.1994)