वक्त की आंधी
उड़ा कर
ले गई मेरा सहारा
नम हुई जो आँख,
मन के बादलों का
झुण्ड जैसे
धड़ कहीं है
पर यहाँ तो
फड़फडाता मुंड जैसे
रो रही सूखी
नदी का
अब न कोई है किनारा
पांव खुद
जंजीर जैसे
और मरुथल-सी डगर है
रिस रही
पीड़ा ह्रदय की
किन्तु दुनिया बेख़बर है
सब तरफ
बैसाखियाँ हैं
कौन दे किसको सहारा
सोच-
मजहब, जातियों-सी
रह गई है मात्र बंटकर
जी रही है
किस्त में हर साँस
वो भी डर-संभल कर
सुर्खियाँ बेजान-सी हैं
मर गया
जैसे लवारा?