नदी में मुँह धोते हुए हाथ काँपते हैं आदमी के
जब वक्त पड़ता है आदमी पर
चीखते हुए-से लगते हैं चीड़ के जंगल
वक्ते से घिरा हुआ आदमी चीतल की तरह
घूमता है अंधेरे में
वक्ता ही है जो उलट-पलटकर
रुई की तरह धुन देता है आदमी को
वक्तक पड़ने पर धूप में एक और धूप लगती है
छायाहीन दिखते हैं पेड़
छाया में भी छाया की जरूरत पड़ती है
अंधेरे में एक और अंधेरा नजर आता है
रोशनी में रोशनी ढूंढता है आदमी
राह चलते हुए पत्थूर ठोकर की तरह लगते हैं
कुल्हातड़ा काम नहीं आता आदमी के
वह सोचता है ऐसे वक्ती पर
जो चीजें काम आ सकती थीं
वे वक्तं पड़ने से पहले काम आ चुकीं उसके
वक्त पड़ने पर आदमी अपने सगे-संबंधियों
यार-दोस्तोंप को याद करता है
चिट्ठियाँ लिखता है, संदेश भेजता है उनके लिए
अलग-अलग दिशाओं में बाँट देता है
अपनी उम्मीदों को
वक्त पड़ने पर अपनी औरत के चेहरे पर
सोना और चाँदी ढूंढता है
खेतों की ओर देखकर बेच देता है बैलों को
भूख नहीं लगती उसे नींद नहीं आती
पलक झपकते ही दरवाजे पर
दस्तझक देने लगता है अंधेरा
दरवाजा खोलकर सोचता है आदमी
रोशनी की दरार पड़े अंधेरे पर
और निकल जाय वक्ते
जिस काम को करना नहीं चाहता उसे करता है
जिस जगह जाना नहीं चाहता उस जगह जाता है
थकी हुई टांगों पर थरथराता हुआ
जहाँ तक फैला सकता है अपने हाथ, फैलाता है आदमी।