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वधिक का गीत / ध्रुव शुक्ल

किनारों के द्वन्द्व से परे बहती नदी
बहा ले जाती है पूरी गृहस्थी
दाह के द्वन्द्व से परे जलती लौ
जलाकर ख़ाक कर देती है पूरा घर
न्याय के द्वन्द्व से परे घूमती पृथ्वी
तहस-नहस कर देती है पूरी बस्ती को
आंधियों के द्वन्द्व से परे चलती हवा
उखाड़ फेंकती है सबकी साँसें
विचारों के द्वन्द्व से परे नीला आकाश
सोखता रहता है सबके शब्दों की स्याही
सुनता रहता है वधिक का गीत।