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वनवास / संजीव 'शशि'

युग बदले पर बदल न पाया,
नारी का इतिहास।
हर युग होती अग्निपरीक्षा,
हर युग में वनवास।।

युगों-युगों से जो घेरे थीं,
अब भी वही व्यथाएँ हैं।
कदम-कदम पर बेबस करतीं,
अगनित कुटिल प्रथाएँ हैं।
जब-जब आगे बढ़ना चाहे,
मिलता है उपहास।

अनजाने भय को लेकर वह,
सहम-सहम जीती पल-पल।
कौन कहाँ कब मैला कर दे,
गंगा-सा पावन आँचल।
गाँव-गाँव में शहर-शहर में,
टूट रहा विश्वास।

मातृशक्ति हो निर्भय जग में,
हम सबसे सम्मान मिले।
उसके नयनों के सपनों को,
एक नयी पहचान मिले।
मुरझाये अब फूल न कोई,
मिल कर करें प्रयास।