Last modified on 29 दिसम्बर 2009, at 15:10

वरदान / अंतराल / महेन्द्र भटनागर

खुल गये आबद्ध अन्तर-द्वार!

सिंधु करता जब गरज अतिहास;
नाचती थी मृत्यु आकर पास,
आँधियों की गोद में जब हो रहा था —
अब गिरा, हा! अब गिरा, तब
हाथ में दृढ़ आ गया पतवार!

याचना करता रहा हैरान
पंथ पर विक्षुब्ध मन म्रियमाण,
नग्न भूखी ज़िन्दगी साकार हो जब
ले रही थी साँस अंतिम
मिल गये तब विश्व के अधिकार!

डूबते से जा रहे थे प्राण;
शुष्क निर्जन था सकल उद्यान
पीत-पत्तों को गँवा कर डालियाँ जब
लुट गयीं तब, दूर से आ
चली पड़ी मधुमय बसंत-बयार!

रचनाकाल: 1946