वरेण्य नहीं हूँ / हरीश प्रधान

क्षमा कीजिये!
हूँ न अनब्‍याहा
चपल चंचल सलोनी
चटपटी-सी लेखनी संग
प्‍यार के फेरे फिरे हैं।
निस्सीम मौनता से भरे
आकाश के नीचे
उदासी से भरा
जब, मन
विकलता में स्वयं ही
छटपटता है।
हृदय के फूटते-से स्वर
रूधिर धमानियों पर
पूनमी आंतक को हो ज्वार
औ जब बेबस भुजाएँ
पाश में आबद्ध करने को मचल जाएँ
तभी नैकट्य पा,
हर भाव को
मुखरिज किया करती
प्रियतमा जो हमारी है।
और शादी करूँ
ना!
यह नहीं होगा

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