सोचती हूँ
किसी दिन निकल जाऊँ
घर छोड़कर
बहुत हुआ भटकना
मन के बियाबान में
अब शरीर को दिखाऊँ
असलीवाला जंगल
और पता करूँ
कैसे होता है, बिना छत के रहना
सोचती हूँ
किसी दिन कुछ भी न पकाऊँ
सो जाऊँ ऐसे ही
घुटने पेट के पास मोड़कर
महसूस करूँ भूख को
जिसे बहुत पढ़ा है
अख़बारों में, किताबों में, कहानियों में
सोचती तो यह भी हूँ
कि जब भी निकलूं घर से
निर्वसन ही रहूँ
धूप में जलूं, बारिश में भीगू, ठण्ड में कांपू
बहुत बखान सुना है
रोटी, कपड़ा और मकान का
जानती हूँ
भूखी तो रह लूंगी कुछ दिन
और बिना छत के भी
पर निर्वस्त्र होना आसान नहीं है
बहुत मुश्किल होता है
वर्धमान से महावीर होते जाना!