जब बर्षा आरम्भ होय अति धूम धाम सों ।
बरषै सिगरी निसि जल कर आरम्भ शाम सों ।।
उठैं भोर अन्दोर सोर दादुर सुनि हम सब ।
बदली जग की दसा लखैं आवैं बाहर जब ।।
किए हहास बहत जल चारहुँ दिसि सों आवै ।
गिरि खन्दक मैं भरि तिहि को तब नदी सिधावै ।।
भरैं लबालब जब खन्दक अतिशय मन मोहैं ।
बँसवारी के थान बोरि नव छबि लहि सोहैं ।।
धानी सारी पर जनु पट्टा सेत लगायो ।
रव दादुर पायल ध्वनि जाके मध्य सुनायो ।।
श्याम घटा ओढ़नी मनहुँ ऊपर दरसाती ।
ओढ़े बरसा बधू चंचला मिसि मुसकाती ।।
भाँति-भाँति जल जन्तु फिरत अरु तैरत भीतर ।
भाँति-भाँति कृमि कीट पतंगे दौरत जल पर ।।
मकरी और छबुन्दे, तेलिन, झींगुर, झिल्ली ।
चींटे, माटे, रीवें, भौंरे, फनगे, चिल्ली ।।
जनु हिमसागर पर दौरत घोड़े अरु मेढ़े ।
सर्राटे सों सीधे अरु कोऊ ह्वै टेढ़े ।।
बिल में जल के गए ऊबि उठि निकरे व्याकुल ।
अहि, वृश्चिक, मूषक, साही, विषखोपरे बाहुल ।।
लाठी लै-लै तिनहिं लोग दौरावत मारत ।
किते निसाने बाजी करत गुलेलहि धारत ।।
कोउ सुधारत छप्पर औ खपरैलहिं भीजत ।
भरो भवन जल जानि किते जन जलहि उलीचत ।।
लै कितने फरसा कुदाल छिति खोदि बहावैं ।
बाढ़ेव जल आँगन सों, नाली को चौड़ावैं ।।
लै किसान हल जोतहिं खेतहिं, लेव लग्यो गुनि ।
बोवत कोउ हिंगावत बाँधत मेड़ कोउ पुनि ।।