एक पुरानी उपमा दी है मैंने तुम्हें
बस,
देखो, फूलों में देखती हुई इस पृथ्वी को
हवा में लिख उठने को व्याकुल
इन कनेर पत्तियों को
बहुत कोमल हो आयी इस धूप को
सब कैसे जाने-पहचाने लगने लगे हैं
चारों ओर फैले इस एकांत में
कहां से चली आई है यह नदी ?
यह परिचित शाम ?
क्या तुम पहचान पा रही हो अपने को ?
समय में छूट गई तुम
ऐसे मिलोगी एक दिन
पुरानी उपमाओं के बीच
सर्वथा नए अभिप्राय-सी
कहां मालूम था मुझे ?