177.
जेहि लागु देव तेहि को छोड़ाव।
यदपि जुरहि नवखंड के राव।
भाजि चले पुनि लोक लाज।
पाँच जने को स्वाद बाद।
मेटि सकल अंग विष-विषाद।
तन धरती मन गगन थान।
घुमत रहत घायल समान।
निशि दिन व्यापै पीर ताहि।
भावत भोज भवन नाहि।
काल अकाल नहि राव-रंक।
रन वन घन डोलै निसंक।
मिथ्या करि जानै संसार।
मिलन चहै हित बारंबार।
इत उर वात न वाहि सोहात।
बकत रहत विपरीत बात।
धरनी दास वसंत हिं गाव।
सत गुरु संगति, हि सुभाव॥1॥
175.
एक अकथ कहानी कहि न जाय। जो ना कहाँ घट नहि समाय।
लघु दीरघ नहि मोट छीन। घटत बढ़त नहि दीन दीन।
निपट निरंतर हलुक न भार। हिन्दू तुरुक व बूढ़ बार।
श्याम जर्द नहि सेत रात। अति अवरन मुख कहि न जात।
दसहुँ दिसा नर मरत धाय। रहेउ सकल घट भवन छाय।
जरत सरत नहि मरत मारि। योगी पंडित गयो हारि।
नहि पावै कर कोटि दान। कोइ कोइ भेदी जान।
मो मन भवन परो भुलाय। सहजे सतुगुरु भौ सहाय।
धरनी निसदिन धरत ध्यान। साधु संग होइ विमल ज्ञान॥2॥
179.
ताको भाग भाल, जाको गुरु दयाल। दुख विसर सोय, सो भौ निहाल।
जागु आत्मा सुनत बैन। मनहु आँधरो पाव नैन।
मूल मंत्र मूरति सनेह। उपजु सहज अनुराग देह॥
तन परिचय उत अति अनंद। तिमिर छपि भौ उदित चंद॥
हृदय कँवल दल भौ प्रकास। गगन मगन मन मिटेउ त्रास॥
काम क्रोध मद लोभ मोह। भय ममता बुद्धी विछोह॥
ललित अनाहद गलित गान। कर्म कठिन वन जरि बुझान॥
अकथ कथा कछु कहि न जाय। जो जन जान सोइ पतियाय॥
आतम परमातम विलास। पंचम गावै धरनिदास॥3॥
180.
धरनीधर जेहि भये सहाय। तासु कहानी कहि न जाय॥
दुरिगो दुर्मति उपजु ज्ञान। औचक लागो विरह वान॥
वान लगे नहि जीवे सोय। जीवे वाउर बहि होय॥
अभिअंतर पाओ विश्राम। जपत रहत तँह राम राम॥
सो हँ सो हँ सुरति लाय। कबहिँ कबहिँ गु उठत गाय॥
परम जोति जब भौ प्रकाश। प्रगट भवो तब हरिकोदास॥
निर्मल दर्पन चढ़ेउ हाथ। जब निरखै तब स्वामि साथ॥
धरनी कह जन मुक्त सोय। देखो वेद वचन विलोय॥
ताके दरसन हरत पाप। अवर नहि सो तो आपे आप॥4॥