दबी साँसों की भाप से पिघलने लगी है बर्फ़
लगे है ज़िंदगी की धड़कन अभी रुकी नहीं ।
यूँ तो कब के उतर चुके इस शहर से झंड़े
ये ऊँची इमारतें पूरी झुकी नहीं ।
ध्वस्त परकोटे, सींखचे, दीवार, ज़ंजीरें
लोगों को घूरती निगाह पर हटी नहीं ।
नया जोश, नया राज, नया सूरज औ’ चाँद हैं
गर्दिश की घटाएँ फिर भी छटी नहीं ।
बड़े फरेबी औ’ खुद्दार हैं ये ठूँठ बने पेड़
वसंत देखने की चाह अब भी मिटी नहीं ।