यह वसंत की गर्म-सर्द-सी धूप
कुनमुनाती-सी
मेरे पास चली आई है
अपनी मर्यादा को लांघ
लिपटती है मुझसे चुपचाप
चूमती रोम-रोम
अहसासों वाले गर्म सांस से!
यहां, नदी के तट पर बैठा
देख रहा हूं मैं एकाकी
जल में अपनी ही परछाई
जिसको छूकर लौट रहीं फागुनी हवाएं
बरबस ही गुदगुदा रही है
याद तुम्हारी
भीतर-भीतर!
वहां, किसी बरगद के नीचे
बैठी हुई उदास
बुन रही होगी सपने
तुम
आने वाली सुबहों के
गौरैया की चिहुंक
ताल से
तुम्हें खींचती होगी बरबस
अंगड़ाई-सी लेकर
तुम फिर से उदास हो जाती होगी!
मन के किसी एक कोने में
रावी-तट के
हीर और रांझा की वंशी-टेरों वाले
दृश्य अचानक उमड़े होंगे
और सुगबुगाकर तुमने
अपनी वेणी में
टेसू के दो फूल
उमगकर टांके होंगे
कनुप्रिया का बिम्ब उभरता होगा
उन खंजन-आंखों में!
लेकिन मेरे पास उदासी का मौसम है
टूटे सपने
सूनेपन में
झांक रही अनमनी निगाहें
औंधी पड़ी हुई हैं वे सारी मेहराबें
जो हम-तुम को जोड़ रही थीं!
और यहां मैं देख रहा हूं
पानी में अपनी परछाई
डरता हूं-
यह कहीं अचानक टूट न जाये
किसी शिकारी की गुलेल से
छूटे हुए
नुकीले कंकड़ के प्रहार से!
-25 जनवरी, 1981