इंसानियत की यहाँ कौन
सुन रहा है सिसकियाँ।
खूँटे में बंधा पुरूषार्थ
ले रहा अंतिम हिचकियाँ।
वहशी हवाओं का झोंका
धरती की इज्जत को तार-तार करता रहा।
मानवता का खून से लथ-पथ शरीर
व्याभिचार का तांडव सहता रहा।
बंधा हुआ आकाश आज बस
बेबस हो रोता रहा।
प्रहरी था जो पहाड़ वह भी
न जाने क्यों खामोश सोता रहा।
मिट रही है प्राची की लालिमा
छाई है चारों तरफ खामोश कालिमा।
दाग लगा है गहरा चाँद पर
निस्तेज हुई है आज चाँदनी।
ममता की चीख से
अब तो पत्थर भी पिघल रहा।
पहाड़ सी व्यथा से फिर पहाड़
का सीना क्यों नही उबल रहा।
न फटा बादल और न ही गिरी बिजलियाँ आज।
सागर की उफनती लहरों को भी न आयी लाज।
प्रलय भी दूर से न जाने क्यों
चुप-चाप देखता रहा।
छुई-मुई सी सिमट गयी है
दिशाएँ खामोश सी।
मंजिल भी थम गयी है
होकर बेहोश सी।
लाज को भी आ रही है लाज
फटती धरती तो गड़ जाती वह भी आज।
फूल, कली सब लुटेरों ने लूट लिया
बचे काँटों के इस गुलशन पर कौन करे नाज।