तुम भी कुछ नहीं हो
और मैं भी कुछ नहीं हूँ
आओ
हम एक-दूसरे के कुछ न होने को छुएँ
और कुछ होने की इच्छा से दूर हो लें ।
हमारे कुछ होने के पार भी
बहुत कुछ है
जिसे जाना जा सकता है -
चीज़ों को अर्थों के बँधन से बाँधना ज़रूरी तो नहीं,
हर बात का अर्थ होता भी नहीं है
फिर भी वह होती है ।
आओ, हम उस बात को छुएँ
चीज़ों को छुएँ
उनके अर्थ की तलाश में उन्हें न खो दें ।
बहुत दूर जाते हुए
पाँव के नीचे क्या है
यह जानना ज़रूरी नहीं है ।
दूर के मत्स्य-बेध अक्सर अधूरे होते हैं ।
एक पगडंडी को पहचान लेने से
दूर की सड़क
अर्थहीन हो जाती है ।
आओ, हम उस अर्थहीनता को छुएँ
और जो हैं वही हो लें ।
अपने से बाहर का कुछ
हमारी सोई नज़रों को पकड़ता है -
हम जानते हैं मरीचिका के सारे अर्थ
किन्तु
आकाश होने की धुन में
ज़मीन हम छोड़ जाते हैं
वही जिससे हम उगे हैं ।
और फिर लौटने का समय आ जाता है
कुछ नहीं होने का ।
आओ, अपनी थरथराती उँगलियों से
हम एक-दूसरे को जानें -
उस मिट्टी को
जिसमें हम उगे हैं ।
पैरों के नीचे ही हमारी जड़ें हैं -
वहीं लौटना होगा ।