Last modified on 29 अक्टूबर 2017, at 21:43

वही पुरानी पगडंडी यह / कुमार रवींद्र

वही पुरानी
पगडंडी यह
जिस पर हम-तुम साथ चले थे
 
बरसों पहले की यह घटना
नये हुए थे इन्द्रधनुष हम
सपने थे तब ओस-भिगोये
साँसें भी थीं मीठी पुरनम
 
हमने जो सँग
रची सुबह थी
उसके अनुभव सभी भले थे
 
पाँव-पाँव हमने नापी थी
जहाँ सूर्य रहता
वह घाटी
जहाँ चाँद ने बोई पूनो
छूकर देखी हमने माटी
 
पर्वत पर थे
चढ़े संग हम
ढालों पर सँग-सँग फिसले थे
 
कभी नदी का बहना देखा
बैठे कभी झील के तट पर
बाँच हठी रोमांस हमारा
खूब हँसे थे पुरखे पत्थर
 
थके हुए
बूढ़े सैलानी
देख हमारा पर्व जले थे