सात सुरों में जो बजता है
वही राग है
सबके भीतर
कल कनखी-कनखी थी हमने
साधो, पाती पढ़ी नेह की
बजती धीरे-धीरे मन में
कहीं तान है पकी देह की
कस्तूरी हिरना के जैसे
खोज रहे हम
उसको बाहर
पतझर में भी कोंपल होतीं
कई बार पिछली इच्छाएँ
जब-जब
जंगल हुआ समय है
हमने बाँची परीकथाएँ
मीठी लय का ताना-बाना
बुनते रहते
ढाई आखर
धूप-छाँव के हर खेले में
साँसें वंशी-धुन होती हैं
वही हमारे सीने में भी
रंगों के उत्सव बोती हैं
यह सब अगर नहीं होता तो
हो जाते हम
अब तक पत्थर