वह अपने हाथों से
अँधेरे में खोई अपनी देह को
खोजती-खोजती सो जाती है थककर
अपने आलोक के झीने जाल में
धीरे-धीरे झूलता है ताम्बई चन्द्रमा
वह आईने के सामने खड़ी
सोचती है : आईना एक दीवार है
जहाँ से टकराकर हर बार गेंद की तरह
लौट आता है
मेरा ही चेहरा !