प्रेम की गीता पुनीता भाष्य से है परे, ज्ञानातीत है वह।
जो सुखद, रसमय लगे, फिर भी न स्वर-लिपि में बँधे, मृदुगीत है वह।
प्रेम सागर का नदी में विलय है, वह आत्मा का समर्पण!
प्रेम श्रद्धा है, विनय है, अहं का सर्वांशतः वह है विसर्जन!
भक्ति की थी भूमि पर फैली लता जो प्यार की, उसकी कथा है!
जीत से भी जो बढ़ी महिमा निराली हार की, उसकी कथा है!
एक निर्धन की विजय, अधिकार की, उसकी कथा है!
आदमी पर प्रीति जगदाधार की, उसकी कथा है!
आज से दस साल पहले, गाँव से कुछ दूर निर्जन नदी-तट पर!
एक निःसंतान भूपति के महल का था पचासों वर्ष का अभिशप्त खँडहर!
थे स्वयंभू वृक्ष दो अश्वत्थ के, तिरछे मिले फैले भयंकर!
भूत-प्रेतों की कथाएँ विजन दिन में भी बनाये रहा करती थीं निरंतर!
वहीं वर्षों से कहीं से एक कृश अवधूत आकर जम गये थे!
थे पुराने, सर्वपरिचित पर रहस्यों से भरे लगते नये थे!
नहीं केवल मस्तकानन, देह सारी ऊन जैसे बाल से गहरी पटी थी,
एक टेढ़ी लकुटिया, बस एक कमली, और वह भी बीस जगहों से फटी थी।
कृष्ण उथला-सा कमंडलु था पुराना एक सहचर मात्र वासन।
शीत, वर्षा, धूप में थी उस विषय वट-वृक्ष की जड़ एक आसन।
गाँव में जाते नहीं थे, हाथ फैलाते नहीं थे कभी।
वे न थे धूनी रमाते, भजन भी गाते नहीं थे कभी।
ईंट-कंकट को उठाकर नदी में थे फेंकते रहते निरंतर
शून्य में थे लक्ष्य करते बुदबुदाते, बात करते ज्यों अस्फुट स्वर!!
जब कभी खुश हो किसी को एक लक्कड़ मार देते थे सहज ही!
तो समझ लो दुःख से तत्क्षण उसे वे तार देते थे सहज ही!
एक साल अकाल का आसार सारे गाँव में फैला भयंकर!
होम करने लगा धरनी का, निरन्तर क्रुद्ध दिनकर!
शशक-सा भी मेघखण्ड नहीं विचरता था कहीं विस्तृत गगन पर!
जेठ में ही पहुँच जैसे वर्ष का दम घुट गया हो, पस्त होकर!
त्राहि-त्राहि मची हुई थी, कुलबुला कर सो गया जन-अंक में मल्हार!
तमतमाया दिन! पवन ज्यों झोंकता था धरित्री का भाड़!
एक दिन ग्रामीण होकर क्लान्त, भीत, निराश औ’ निरुपाय!
पास उस अवधूत के पहुँचे, लगे कहने ”लुटे हम, हाय!“
...जीविका का है ये साधन खेत, निर्धन हम कृषक नादान!
रक्त औ’ प्रस्वेद देकर ही न केवल रोप सकते हम अभागे धान!
पेट का दोज़ख़ नहीं परिवार का फिर भर सकेंगे बेच भी ईमान!
इसलिए कोई उपाय करें कि बाबा, मिल सके थोड़ा हमें जल-दान!
प्रार्थना सुन लगे रोने और कहने ”मैं गरीब फ़कीर,
कौन समझे बेबसी मेरी कि जाने कौन मेरी पीर!
आजकल मेरी खुदा से बन नहीं पाती, बहुत नाराज हैं वे!
क्या कहूँ सुनते नहीं सीधी तरह से आरजू, मिन्नत, सही आवाज़ हैं वे!
क्या कहूँ सुनते नहीं सीधी तरह से आरजू, मिन्नत, सही आवाज़ हैं वे!
”माँगता जो कुछ, उसे वे उलट देते हैं, हमारी प्रार्थना बर्बाद होती है!
ईंट मिलती है सरासर ईंट, माँगता जब मन किसी के लिए मोती है!
और मेरी जो जरूरत हो, उसे वे रौंद चकनाचूर करते हैं!
वे हमारा सुख सुख मिटाते हैं, न भूले भी कभी दुख दूर करते हैं।“
”यदि नहीं विश्वास मेरी बात का तुमको, ज़रा-सा आज़मा लो!
और ओ तुम इस कमंडल में नदी का जल भरा भरकर मँगा लो!“
...इस तरह कम्बल भिगोकर सूखने को रख दिया तपती धरा पर!
और बोले, ”जो खुदा, तू सूखने दे फटी गुदड़ी आज जी-भर!“
...और हतप्रभ हो गये सब लोग, पीपल हड़बड़ाये, धड़धड़ाये शून्य में घनश्याम!
छलछलाये रस, जल्द फिर चार दिन तक बरसते ही रह गये अविराम!
दूसरे ही दिन सवेरे किन्तु, दीख पाया वह नहीं अवधूत!
क्या पता झगड़ा सुलटाने के लिए ही स्वर्ग पहुँचा हो खुदा का दूत!
(15.8.71)