वह इतना नहीं, इस से कहीं अधिक है। तुम में कोई क्रूर और कठोर तत्त्व है- तुम निर्दय लालसाओं की एक संहत राशि हो!
यही है जो कि एकाएक मानो मेरा गला पकड़ लेता है, मेरे मुख में प्यार के शब्दों को मूक कर देता है- यहाँ तक कि मैं तुम से भी अपना मुख छिपा कर अपने ओठों को तुम्हारे सुगन्धित केशों में दबा कर, अस्पष्ट स्वर में अपनी वासना की बात कहता हूँ- कह भी नहीं पाता, केवल अपने उत्तप्त श्वास की आग से अपना आशय तुम्हारे मस्तिष्क पर दाग देता हूँ।
यही जुगुप्सापूर्ण और रहस्यमयी बात है जिस के कारण मैं तुम्हारे प्रेम के निष्कलंक आलोक में भी डरता रहता हूँ...
दिल्ली जेल, 25 फरवरी, 1933