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वह कब उगलोगे / कुमार मुकुल

सच्चाइयाँ आज कहवाघरों में पस्त होते लोगों की

बुदबुदाहटों में शेष हैं

और न्याय को

हर शख़्स

भविष्य के गर्भ में उछाल रहा है

और वर्तमान सिरे से गायब है

समय के शमशान में

मुर्दों का राज है

और मैं किसी ठूँठ की कोटर से झाँकता उलूक हूँ


नाख़ून को नैतिकता से बदलकर

कविता ने मुझे लाचार बना डाला है

अपनी सदाशयता का मैं क्या करूँ

जो एक हिंस्र भाषा के समक्ष हथियार डाल देती है

इस परिवेश का क्या करूँ मैं

जिसमें किसी की बैसाखी बनने की

औकात भी शेष नहीं

मेरा संवाद अपने समकालीनों से नहीं उन बच्चों से है

जो यतीम पैदा हो रहे हैं


हम सब कवि हैं

कथाकार और आलोचक

जो अपनी गंधाती पोशाकें नहीं फेंक सकते

क्योंकि उसमें तमगे टँके हैं

हम अपना मुख तब-तक नहीं खोल सकते

जब-तक

उसमें चांदी की चम्मच न ठूँसी जाए

हम सब भाषा के तस्कर

मुक्तिबोध को और कितना बेचेंगे

हम जो भाषा को

फँसे हुए अन्नकणों की तरह

कुरेदकर निकालते हैं दाँतों से

उसे कब निकालेंगे जिसे निगल जाते हैं

चालाकी से।