आज भी वह दिन न भूला।
शीर्ण मानस में मनोरथपूर्ण जीवन आ भरा था,
और जब मरुलोक भी मधुसिक्त हो पाया हरा था,
चिर-प्रतीक्षा के बाद मेरा बाग़ पहली बार फूला।
गंध-नी बह मंद शीतल गंध का करती वहन थी,
कूक पिक शुक सारिका कि रागिनी करती सर्जन थी,
टँग रहा था वृन्त पर ऋतुराज का हर ओर झूला।
एक दुनिया ही निराली थी, नयी पल-पल पुलक थी,
आप अपने सौख्य, स्वप्निल-राशि पर रोमालि ठक् थी,
शूल भी थे फूल, अपने में समाता था न फूला।
चल रही थी पाल सुख के तान लघु तरणी दुलारी,
शांत था सागर, जगत्पट पर खचित थी चित्रकारी,
बालराशि की तूलिका से था प्रकृति ने चित्र तूला।
आह! तब सोचा न था, यह चार दिन की चाँदनी है,
धौरहर हौ धूम का, चाँदी नहीं, बालू-कनी है,
स्थिर जिसे था मानता, निकला वही जल का बबूला।
घिर घुमड़ सहसा लगे घन-घन गगन में शोर करने;
क्षुब्ध सुखसागर; लगे खर-शर-सदृश हिमबिन्दु झरने;
ले गया नौका भँवर में एक झोंके का बगूला।
नि: स्व यों मुझको बनाकर, फेंक कर अनजान थल में,
क्या मिला तुझको, हुई क्या वृद्धि तेरे सिद्धि-बल में?
कब न तुझको, भाग्य मेरे, था प्रबल मैंने कबूला?