वह नभ कंपनकारी समीर,
जिसने बादल की चादर को
दो झटके में कर तार-तार,
दृढ़ गिरि श्रृंगों की शिला हिला,
डाले अनगिन तरूवर उखाड़;
होता समाप्त अब वह समीर
कलि की मुसकानों पर मलीन!
वह नभ कंपनकारी समीर।
वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर,
जिसने क्षिति के वक्षस्थल को
निज तेज धार से दिया चीर,
कर दिए अनगिनत नगर-ग्राम-
घर बेनिशान कर मग्न-नीर,
होता समाप्त अब वह प्रवाह
तट-शिला-खंड पर क्षीण-क्षीण!
वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर।
मेरे मानस की महा पीर,
जो चली विधाता के सिर पर
गिरने को बनकर वज्र शाप,
जो चली भस्म कर देने को
यह निखिल सृष्टि बन प्रलय ताप;
होती समाप्त अब वही पीर,
लघु-लघु गीतों में शक्तिहीन!
मेरे मानस की महा पीर।